Krantikari - 1 in Hindi Moral Stories by Roop Singh Chandel books and stories PDF | क्रान्तिकारी - 1

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क्रान्तिकारी - 1

क्रान्तिकारी

(1)

समस्या ज्यों-की त्यों विद्यमान थी. सात महीने सोचते हुए बीत गये थे, लेकिन न तो शैलजा ही कोई उपाय सोच पायी और न ही शांतनु. ज्यों-ज्यों दिन निकट आते जा रहे थे शैलजा की चिन्ता बढ़ती जा रही थी. पेट का बढ़ता आकार और घर और दफ्तर के काम---- सुबह पांच बजे से लेकर रात नौ बजे तक की व्यस्तता शैलजा को निढाल कर देती. वह सोचती, यदि घर के कामों में ही किसी का सहयोग मिल जाता तो इतना स्ट्रेस उसे बर्दाश्त न करना पड़ता. लेकिन शांतनु का सुबह-शाम के लिए कोई नौकरानी रख लेने का प्रस्ताव भी उसे स्वीकार नहीं था. नौकरानी के लिए निश्चित समय निर्धारित करना होगा और घर के कामों के लिए किसी प्रकार का बन्धन उसे पसंद नहीं.

शांतनु चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर पाता. सुबह आठ बजे वह कॉलेज के लिए निकल पड़ता है शैलजा के साथ. शैलजा केन्द्रीय सचिवालय के लिए बस पकड़ती है और शांतनु कॉलेज के लिए. कार्यालय से छूटकर शैलजा सीधे घर आ जाती है, लेकिन शांतनु रात नौ-दस से पहले कभी घर नहीं पहुंचता. कॉलेज के बाद कितने ही काम होते हैं उसके पास. कॉलेज की राजनीतिक गतिविधियों में तो वह सक्रिय है ही, विश्वविद्यालय प्राध्यापक संघ से भी संबद्ध है. इसके अतिरिक्त वह 'अग्रिम दस्ता' संस्था का संचालक भी है और इसी नाम से एक त्रैमासिक पत्रिका भी प्रकाशित करता है. संस्था और पत्रिका के लिए कॉलेज के बाद का अधिकांश समय उसका खर्च हो जाता है. कुछ वर्षों में ही उसकी सक्रियता के कारण 'अग्रिम दस्ता' उसके नाम का पर्याय बन चुकी है. उसकी एक खास विचारधारा है और उस विचारधारा के लोगों का उसे भरपूर सहयोग प्राप्त होता रहता है.

जब भी 'अग्रिम दस्ता' की बैठक शांतनु के घर होती है, शैलजा का काम बढ़ जाता है. घंटों बैठक चलती है----- बहसें होती हैं----- इस देश के सर्वहारा की प्रगति और शोषण-मुक्त समाज की परिकल्पनाओं से लबालब बहसें शांतनु के किराये के लम्बे-चौड़े ड्राइंग रूम में गूंजती रहती हैं---- और शैलजा चेहरे पर शिकन लाये बिना चाय-नाश्ते की व्यवस्था में निमग्न रहती है. उसे खुशी होती है यह सब करके. शांतनु की गतिविधियां उसे खिन्न नहीं करतीं.--- और न उसे इस बात का खेद होता है कि शांतनु उसके लिए---- घर के लिए बिलकुल समय नहीं दे पाता. वह यह सोचकर प्रसन्न होती है कि उसका पति जो कुछ कर रहा है, उसके दूरगामी परिणाम अवश्य होंगे और एक दिन इस देश का 'आम आदमी' अपने अधिकारों को पा सकेगा. ऎसा सोचते समय उसे बार-बार लेनिन याद आते हैं और शांतनु लेनिन में परिवर्तित होता देखाई देने लगता है.

तब शैलजा मुग्ध हो उठती है मन-ही मन अपने चुनाव पर--- मां-पिता-भाई छूट गए उसके शांतनु के साथ शादी करने से तो क्या--- शांतनु जैसा पति तो उसे मिला. और उस दिन यह बात बार-बार उसे आंदोलित कर रही थी. वह किचन में चाय बना रही थी और ड्राइंग रूम में संस्था के सत्ताईस प्रमुख सदस्यों के मध्य शांतनु धीर-गंभीर आवाज में पत्रिका के आगामी अंक की रूपरेखा समझा रहा था.

"माओत्से-तुंग के लेख का अनुवाद तो मैं कर लूंगा, और लूशुन की-----."

शांतनु को बीच में ही टोककर कोई बोला था, "उसकी चिंता आप न करें---- उसे मैं देख लूंगा."

"समय बहुत कम है और फिरोजशाह रोड की बैठक से पन्द्रह दिन पहले पत्रिका प्रकाशित होना आवश्यक." शांतनु का स्वर था.

"आप निश्चिन्त रहें."

"और लेनिन पर लेख----डॉक्टर परिमल, आपने कुछ किया ?"

"तैयार है---- टाइप में दे दिया है."

"परसों तक मिल जायेगा?"

"श्योर ---- बल्कि कल शाम ही दे दूंगा----कल तो आप कॉफी हाउस में मिलेंगे न ?"

"आ जाऊंगा---- साढ़े सात के लगभग."

"बाबा---- मेरे पास भगत सिंह का एक आलेख है ---- धर्म और----." विश्वास था.

डॉक्टर विश्वास की बात बीच में ही शांतनु ने काट दी, "ठीक है---- दे दीजियेगा. इस अंक में तो जा न पायेगा-- अगले अंक के लिए देख लूंगा."

विश्वास बुझ गया. उसे विश्वास था कि जहां इतने लेख जा रहे हैं, वहां भगतसिंह के लेख के लिए भी गुंजाइश निकालनी ही चाहिए, लेकिन वह अधिक जोर नहीं दे सकता; क्योंकि उम्र में ही सबसे छोटा न था वहां वह -- संस्था का सदस्य बने भी उसे अधिक समय नहीं हुआ था. और बाबा यानी शांतनु का निर्णय ही पत्रिका के विषय में अन्तिम होता था.

'अग्रिम दस्ता' संस्था की स्थापना के कुछ दिनों बाद से ही संस्था के सदस्य शांतनु को 'बाबा जी' कहने लगे थे. हालांकि उसमें ऎसा कुछ था नहीं कि यह नाम उसके साथ जोड़ा जाता, सिवाय इसके कि सैंतीस की उम्र में ही उसके बाल भुट्टे जैसे होने लगे थे और वह फ्रेंच कट या कहा जा सकता है -- लेनिन-कट दाढ़ी रखने लगा था. दाढ़ी के बाल अवश्य गंगा-जमुनी थे और दाढ़ी और बालों के प्रति वह विशेष सतर्क रहता और मोहल्ले के आम सैलूनों में वह दाढ़ी-बाल कभी सेट नहीं करवाता था. इसके लिए महीने में एक बार वह 'कनॉट प्लेस' जाता. वहां पैसे अवश्य अधिक खर्च करने पड़ते,लेकिन जब वह सैलून से बाहर निकलता, पूर्णतया संतुष्ट होता. 'बाबा जी' संबोधन के लिए उसके दाढ़ी-बाल तो एक कारण थे ही, दूसरा कारण उसकी कविताएं थीं. उसकी कविताओं में साथियों को बाबा नागार्जुन की कविताओं जैसे बिम्ब दिखाई देते और लोगों ने साहित्य में बाबा नागार्जुन के अतिरिक्त एक और 'बाबा' को स्वीकार कर लिया था. हालांकि यह सब संस्था के सदस्यों तक ही सीमित था---- शेष शायद ही किसी ने शांतनु की कविताएं पढ़ी थीं, लेकिन शांतनु को स्वयं को 'बाबा' कहा जाना अच्छा लगता था, बल्कि उसे बाबा कहा जाये यह भूमिका कभी उसीने बनायी थी. वह तब और अधिक प्रसन्न होता जब शैलजा उसे 'बाबा' कहकर पुकारती थी.

उस दिन रात देर बैठक समाप्त होने के बाद जब दोनों बिस्तर पर गये तब शांतनु के दाढ़ी के बालॊं पर उंगलियां फेरते हुए शैलजा बोली, "बाबा, तुम इन बैठकों में ही व्यस्त रहोगे या आने वाले के भविष्य के बारे में भी कुछ सोचोगे?"

शांतनु को प्यार आ गया शैलजा पर. करवट ले उसने शैलजा के बेडौल उदर पर हाथ फेरते हुए कहा, "मैं कहीं--- कितना ही व्यस्त क्यों न रहूं शैल --- एक क्षण के लिए तुम्हारी और इस---- की चिंता से मुक्त नहीं रहता. हम कितना सोच चुके हैं--- हम दोनों के घर से तो कोई आयेगा नहीं-----."

"तुम तो कह रहे थे न कि तुम्हारी दीदी, जो विधवा हैं, शायद आ जायें."

"मैंने उन्हें पत्र लिखा था,कल ही उत्तर आया है----सॉरी शैल, तुम्हें बताने का ध्यान नहीं रहा----- प्लीज डोंट माइण्ड ----." उसने शैलजा के होंठ चूम लिये, "दीदी ने लिखवाया है कि वे इसी हफ्ते देवर के साथ कलकत्ता जा रही हैं--- देवरानी को भी शायद डिलिवरी होने वाली है और वे देवर से पहले ही वायदा कर चुकी थीं----- हम लोगों ने यदि पहले लिखा होता तो शायद-----.

"मैं कब से कह रही हूं तुमसे-----." शिकायती स्वर में शैलजा बोली और उसने भी शांतनु की ओर करवट ले ली.

"मैं समझता हूं----- हमें अब एक आया रखनी ही पड़ेगी."

"मैं आया रखने के पक्ष में नहीं हूं----- सारे दिन के लिए घर को क्या आया के भरोसे छोड़ा जा सकता है?"

"क्यों नहीं?" ड्राइंग रूम और किचन वगैरह खुला छोड़ दिया करेंगे----- बच्चे सहित वह यहां रहेगी---- दूसरे कमरे को बन्द कर दिया करेंगे!"

"नहीं----तुम समझते क्यों नहीं---- आजकल नौकर और आया---- इन पर विश्वास नहीं किया जा सकता---कब क्या कर गुजरें !"

"फिर बच्चे को क्रेश में डाल दिया करेंगे---- तीन महीने का तुम्हें वैसे ही अवकाश मिल जायेगा और तीन महीने की 'मेडिकल लीव' ले लेना--- फिर क्रेश-- छः महीने का बच्चा तो क्रेश वाले रख ही लेते होगें.?"

"लेकिन मैं क्रेश के चक्कर में भी नहीं पड़ना चाहती."

"क्यों? कितने ही दम्पति ऎसा कर रहे हैं."

"कर रहे हैं.--- और रो भी रहे हैं."

"क्यों?"

"सुनते हैं क्रेश में बच्चों को तरह-तरह की बीमारियां हो जाती हैं--- सफाई नहीं रहती वहां----- डायरिया वगैरह आम बात है---- और यह भी कि वहां आया वगैरह बच्चों को अफीम या कोई दूसरी नशीली चीज दे देती हैं, जिससे बच्चा सोता रहे---- रो-रोकर परेशान न करे----- जो दूध फल मां-बाप बच्चे के लिए भेजते हैं उसे वे खा-पी जाती हैं."

"ओह!" शांतनु के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आयीं. कुछ देर बाद वह बोला, "फिर शैल-----?"

"मैं नौकरी छोड़ दूं?" शैलजा ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं.

"कैसी पागलपन की बात कर रही हो ---- तुम्हें पता तो है, यह नौकरी कितनी मुश्किल से मिली थी तुम्हें---- बच्चा बाबू के बंगले के चक्कर लगा-लगाकर जब तलवे घिस गये थे तब. नौकरी छोड़कर क्या तुम इतना बड़ा फ्लैट मेटेंन कर सकोगी और तब क्या मैं यह सब दुनियादारी कर सकूंगा ? 'अग्रिम दस्ता' निकाल सकूंगा? देखती नहीं इसी के कारण कितने लोग पीछे घूमते रहते हैं! हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आर्थिक स्वतन्त्रता हमारी गतिविधियों के लिए--- इस आने वाले के लिए आवश्यक है."

"मेरे नौकरी छोड़ने की बात पर तुम तो घबरा ही गये----- अरे बाबा, मैं नौकरी कभी नहीं छोडूंगी----- अब तो खुश." शैलजा ने उसके गाल थपथपा दिए.

शांतनु चुप रहा.

"एक बात आज ही दिमाग में आयी है."

"कहो."

"मेरी मौसी की लड़की है सुजाता- तुम्हें बताया था न--- तुम्हें याद होगा, हमारी शादी के कुछ दिन बाद उसके पिताजी एक एक्सीडेंट में मारे गये थे. सुजाता उस समय एम.ए.(हिन्दी) फाइनल में थी. प्रथम श्रेणी आयी थी उसकी. मां-बाप की इकलौती संतान. पति की मृत्यु के बाद मौसी सुजाता के साथ अपने अपने देवर के साथ रह रही हैं. सुजाता मुझसे उम्र में कुछ वर्ष छोटी है और मेरी मौसेरी बहन से अधिक वह मेरी अच्छी फ्रेंड है. पीछे उसका पत्र आया था कि चाचा-चाची का व्यवहार उन लोगों के प्रति ठीक नहीं है. एम.ए. करने के बाद उसे कोई जॉब नहीं मिला ढंग का- -डेढ़-दो सौ की स्कूल की प्राइवेट स्कूल मास्टरी छोड़कर. उसे जॉब की सख्त जरूरत है-- कम से-कम इतना मिल जाय उसे, जिससे वह अपने साथ-साथ मां का भी पेट पाल सके---- क्यों न फिलहाल उसे बुला लें? जब तक सुजाता को जॉब नहीं मिलती, वह घर संभालेगी. जैसे ही उसे जॉब मिल जायेगी--- मौसी को बुलाया जा सकता है."

"तुमने पहले क्यों नहीं बताया?"

"तो अभी क्या बिगड़ा है?"

"फिर लिख दो सुजाता को ---- वह अकेले तुरन्त चली आए, जॉब की व्यवस्था हो जाएगी यहां--- तुम्हारी मौसी जी को बाद में बुला लेगें."

"क्या व्यवस्था करोगे उसके लिए?" शैलजा ने पूछ लिया.

"फिलहाल किसी कॉलेज में एडहाक लगवा दूंगा--- बच्चा बाबू और 'हेड ऑफ डिपर्टमेण्ट' से कहना ही तो पड़ेगा--- एक बार और सही. स्साला 'हेड' अपने इतने केंडीडेट इधर-उधर ठूंसता रहता है - मेरे एक केंडीडेट को नहीं रखेगा. उसके विरोध में होने का एक लाभ यह होगा या तो वह सुजाता को कहीं रखेगा या फिर उसका जुलूस निकलवा दूंगा---- 'अग्रिम दस्ता' किस दिन काम आयेगा!"

"फिर लिख दूं?”

"लिख दूं क्या----- उठो--- अभी लिख दो. सुबह दफ्तर जाते समय डाल देना लेटर बॉक्स में---- लिफाफा मेज पर रखा है."

शैलजा सुजाता को पत्र लिखने लगी और शांतनु करवट लेकर सोने का उपक्रम करने लगा. उस समय रात के ग्यारह चालीस बजे थे और गली में चौकीदर की पहली तेज सीटी के साथ सड़क पर उसका डण्डा खट-खट बज उठा था.

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